अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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कथा साहित्य

तेजेन्द्र शर्मा

कुछ आख़िरी दिन

”कभी सोचा है आपने, कि ज़िन्दगी भर पैसा कमाया भी तो बस ग़लत इस्तेमाल के लिये. इस पैसे से आपने अपनों का अनदर किया है, अपने अहं की तुश्टि की है और अकेलापन ख़रीदा है!. . आपके आख़िरी वक़्त में न आपका बेटा आपके पास खड़ा होगा और न ही दोनों बेटियाँ! “. . हाँफने  लगी थी मीरा. इकतालीस साल से अपने पति के व्यवहार से तंग आ चुकी मीरा ने आज अपने दिल की बात को पहली बार अभिव्यक्ति दी थी.
समीर ने डूबती हुई आँखों से मीरा को घूरा. आज शायद पहली बार उसके पास भी कहने को शब्द नहीं थे. वह अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचने लगा. बचपन से लेकर आज तक हमेशा सब को दिया ही दिया है; कभी किसी से कुछ माँगा नहीं. फिर मीरा. . . ? वैसे सच भी है कि समीर की सोच पैसे को लेकर बिल्कुल साफ़ है. उसका मानन है कि दुनियाँ में हर चीज़ की एक क़ीमत होती है – इन्सान की भी. कोई पांच पाउण्ड में बिकता है तो कोई सौ में. पैसे की ताक़त के सामने हर आदमी झुक जाता है.
मीरा को समीर की इस आदत से बहुत परेशानी होती है. जब कभी उसके साथ भारत जाती है, बार बार शर्मिन्दग़ी उठाती है. हवाई जहाज़ से उतरते ही समीर की टिप यात्रा शुरू हो जाती है. टैक्सी वाला हो या रेल्वे का कंडक्टर; सिनेमा हॉल हो या कुली. सबको पहले टिप देता है फिर काम करवाता है. उसके पास एक ही उत्तर होता है – चांदी के जूते से तुम सभी को हाँक सकते हो. आदमी भी जानवर जैसा व्यवहार करने लगता है – उसकी दुम भी हिलने लगती है.
लंदन जैसे शहर में भी समीर ने ख़ानसामा रखा हुआ है. गढ़वाल से लाया है. उनके घर में जो रसोइया वर्शों से काम कर रहा था, उसी का पोता आज लंदन में खान बनता है. दिन रात समीर उसे एक टांग पर खड़ा रखता है. मीरा हमेशा उससे प्यार के दो शब्द बोल कर उसके ज़ख़्मों पर मरहम छिड़कती रहती है. मगर ख़ानसामा को जब कभी समीर की आवाज़ सुनई देती है, वह सब कुछ छोड़ कर उसकी तरफ़ भाग खड़ा होता है. हाँ यह अलग बात है कि पहला मौक़ा मिलते ही मीरा के सामने समीर के व्यवहार की बुराई भी करन शुरू कर देता है.
“मीरा जी, आप पैसे की क़ीमत समझती नहीं हैं. यह जितने सोशलिस्टिक चोंचले आप करती हैं न, वे इसीलिये सम्भव हो पाते हैं, क्योंकि आपका पति दिन रात बैंक में खटता है और पैसे कमाता है. . . जब पैसा आ रहा हो तो उसकी क़द्र नहीं होती. जब जेब ख़ाली होती है, तभी पता चलता है कि आटे दाल का भाव क्या है. ”
“समीर आप रहने दीजिये. हमारी परवरिश जिस घर में हुई है, वो ख़ास दिल्ली के सिविल लाइन्स में सोलह बेडरूम का महल है. अंग्रेज़ों के ज़माने की उस कोठी में आधे मील का तो बाग़ है. मेरे पिता के घर पंद्रह लोगों का स्टाफ़ था. वे वाइस रॉय के यहाँ सर्जन थे. दिल्ली के बाहर हमारी ज़मीनें थीं. काश्तकार खेती करते थे. मुझे बचपन से ही पैसों की कभी कमी नहीं थी. मैं अपने पापा की इक़लौती बेटी थी. पाँच भाइयों की इक़लौती बहन. आज भी अगर राघव भैया को बस एक फ़ोन कर दूं तो पैसे ख़ुद ब ख़ुद चल कर घर पहुँच जाएँगे. हाँ. . आपने अलग किस्म का बचपन देखा है. . ”
“हमने आपसे कितनी बार कहा है कि आप अपने ख़ानदान की बात हमसे न किया करें. ठीक है हम ग़रीब थे, मगर मैंने अपनी मेहनत से यह सब हासिल किया है. रोहतक के एक गाँव टतोली में जन्म हुआ था मेरा. . वहाँ से मेहनत करके यहाँ तक पहुँचा हूँ मैं. ”
“तो अपने दिमाग़ को भी तो आगे बढ़ाइये. उसके दरवाज़े बन्द न रखिये. आप सोचिये आज आप कितने अक़ेले हैं. एक भी तो दोस्त नहीं है आपके पास. ”
“अब अगर लोग मरते जाएँ तो मैं क्या करूँ. अविनश धवन, इक़बाल ज़ैदी, अजीत सिंह सभी तो मेरे दोस्त थे. हाँ, उनके बिन ज़रूर अक़ेला हो गया हूँ. ”
“आपकी दिक्कत यह है समीर कि आपने कभी दोस्ती की ही नहीं. आपने बस चमचे पाले. जो आपकी हाँ में हाँ मिला दे उसे आप अपन मान लेते थे, जो आपके सामने बराबरी की बात करता था, आप उसे पास नहीं फटकने देते थे. या तो आप ख़ुद चमचे बन जाते थे या फिर चमचे बन लेते थे. दोस्ती के तो आपको मायने भी नहीं मालूम. ”
“अब आप हद से आगे बढ़ती जा रही हैं. ”
“काश! मैंने ये हदें उस वक़्त पार की होतीं जब आपको बदला जा सकता था. . शायद आपको रिश्ते बनने आ जाते. आपने तो मेरे पाँचों भाइयों के साथ भी कोई रिश्ता नहीं रखा. . आपके अपने परिवार की तो बात ही क्या. ”
“आपने फिर हमारे ख़ानदान पर उंगली उठानी शुरू कर दी है. ”
“किस ख़ानदान की बात कर रहे हैं आप. आपका बड़ा भाई घर छोड़ कर भाग गया. दूसरे ने ज़िन्दगी भर नौकरी नहीं की. बस हमारे पैसों पर भारत में पल रहा है. सबसे छोटे को आपने बैंक में चपरासी लगवा दिया. . बस इसी ख़ानदान की दुहाई देते हैं आप?. ”
“अरे ख़ानदान केवल पैसों से नहीं बनता. हमारे दादा परदादा महाराजा पटियाला के यहाँ दीवान हुआ करते थे. यह तो हमारे पिता जुए शराब की लत लगा बैठे. वर्ना हम लोग भी दीवान बसेसरनथ के ख़ानदान से हैं. . हमारी भी हवेली थी, नौकर चाकर थे. हमारी माँ के पास तो उस ज़माने के फ़ोतो भी रखे थे. हमारे पड़दादा की तो पेंटिंग्स भी बनी थीं. ” 
मीरा ने समीर की माँ को भी देखा था और भाई बहनों को भी; उनके साथ बहुत साल बिताए थे. शादी के बाद उसे शिवाजी पार्क के एक ढाई कमरे के घर में जीवन शुरू करन पड़ा था. हनीमून के लिए समीर के फूफा के घर कुरुक्शेत्र गई थी. कैसा अजब ख़्याल था! हनीमून पर समीर की बड़ी बहन ज्योति भी साथ गई थी. दिल्ली से कुरूक्शेत्र! एक मायने में सही भी था कि ऐ लड़की तू ज़िन्दगी की महाभारत का सामन करने जा रही है, जा भगवान कृश्ण से स्वयं ही गीता का उपदेश ले आ. मीरा को कभी भी समझ नहीं आता था कि समीर और उनके परिवार के लोग आपस में धीमे सुर में बात क्यों नहीं करते.
वैसे समीर ने अपनी भी एक पेंटिंग बनवा रखी है. मीरा उसी पेंटिंग के सामने आकर खड़ी हो गई है. कुछ इस तरह से दो पेंटिंग टांगी गई हैं कि लगता है जैसे समीर और मीरा एक दूसरे को देख रहे हों. पेंटिंग में भी मीरा हँस रही है और समीर घोर गम्भीर मुद्रा में है. मीरा ने स्वयं ही उनके लिए फ़्रेम ख़रीदे थे. हैरड्स से जा कर लाई थी. समीर को बेहतरीन चीज़ें पसन्द हैं. उसकी कमीज़ें, सूट, जूते, जुराबें, टाइयाँ सभी डिज़ाइनर होती हैं. उसे केवल फ़्रेंच कपड़े और कोलोन पसन्द हैं और जूते केवल बाली के पहनता है. न चाहते हुए भी मीरा को भी बरबरी, वाई एस एल और पाको रबां के उत्पादों की आदत पड़ गई है.
घर भी लिया है तो हैम्पस्टेड में. जॉन कीट्स के घर से करीब दस मिनट का पैदल का रास्ता है. समीर ने पिछले तीस सालों में एक बार भी उस घर के भीतर झांक कर नहीं देखा, “अरे क्या रखा है उस घर में. कीट्स एक ग़रीब आदमी था. टी. बी. से मरा था. भला हमें क्या पड़ी है उस घर में जाने की?. ”
“इस तरह तो आपको उसके घर से ख़ास लगाव होन चाहिये समीर. आपका अपन बड़ा भाई भी तो टी. बी. का शिकार ही हुआ था. आप तो उसके अन्तिम समय के साक्शी थे. . उसकी आखि़री ख़ून की उल्टी तो आपकी माँ ने अपने हाथों में उठा ली थी. ”
“मैं अपने अतीत में नहीं जीता. मेरा अतीत बहुत डरावन है. मुझे अपने अतीत या उससे मिलते जुलते किसी भी हालात से डर लगता है. . मैं तीन मील पैदल स्कूल जाया करता था. स्कूल पहुँचते-पहुँचते पसीने से सराबोर हो जाता था. . मैडम चप्पल पहन कर तीन मील जान और तीन मील आन. . बहुत मुश्किल होता है. ”
हाँ समीर को अपने अतीत से डर लगता है. मगर जब कभी खाने की बात होती है तो अपनी माँ के हाथ के खाने की तारीफ़ करने लगता है. अतीत का शायद एक यही हिस्सा है जिसे वह चस्के लेते हुए याद करता है. मीरा के चेहरे पर आई हल्की सी मुस्कान उसके दिल की बात का आभास दे जाती है. जब समीर बताता है कि भारत के बँटवारे के समय लाहौर से दिल्ली आए थे तो पिता की आँखें इतनी कमज़ोर हो चुकी थीं कि कोई नौकरी का सवाल ही नहीं था. बड़ा भाई नकारा और छोटा आवारा! समीर ने सुबह अख़बार बेच-बेच कर और ट्यूशन कर करके अपनी पढ़ाई पूरी की थी. पंजाब मैट्रिक, इंटर और फिर बी. ए. – अपने परिवार का पहला ग्रैज्युएट! भला जहाँ इतने अभाव थे, वहाँ स्वादिश्ट भोजन कहाँ से आता था. . !
ज़ाहिर सी बात है कि जिस चीज़ की बचपन से कमी रही, उसके आते ही सारे जीवन का केन्द्र वही यानि कि पैसा बन गया. लंदन में भी हर रविवार की शाम समीर के अहम् को बहुत सुख देती थी. उसी दिन वह अपने बच्चों को एक क़तार में खड़ा कर के हफ़्ते भर की पॉकेट मनी देता था. कुछ वर्शों तक तो मीरा को भी  घर का ख़र्चा लेने के लिये उसी क़तार में खड़ा होन पड़ता था. हैरान होती थी – परेशान भी. मगर समीर के घर का यही रिवाज़ था. चाहे नौकरों को टिप देन हो या बच्चों की जेब-ख़र्ची या फिर मीरा को घर चलाने के लिये पैसे – सभी को बादशाह सलामत के सामने क़तार में खड़ा होन पड़ता था.
समीर की सोच एकदम क़रारे नोट की तरह साफ़ थी. मेरे पास पैसा है, मैं तुम्हें पैसा दे रहा हूँ, तुम्हें इसका बदला अभी उतारन होगा. यह मामला लेन-देन का है. तुम अपन धन्यवाद मुझ तक अपनी आँखों में गीलापन ला कर, अपनी आवाज़ में थरथराहट पैदा करके, अपनी नज़रें नीची झुका कर बस लोट जाओ मेरे क़दमों में. और मैं गर्व से अपनी गर्दन तान कर तुम्हारी तरफ़ ऐसे देखूँ जैसे तुम कोई कीड़े मकोड़े हो. उसके बैंक में भी हर आदमी उसकी कुर्सी को सलाम करता है. . किसी को नहीं पता कि उस कुर्सी पर कोई इन्सान भी बैठता है.
हिसाब किताब का पक्का है. कोई यह नहीं कह सकता कि समीर ने उससे कोई भी काम करवाया और उसके दाम नहीं चुकाए. दरअसल बहुत से लोग ऐसे भी होंगे जिन्होंने समीर से पैसे पहले लेकर भी उसका काम नहीं किया. पैसे के मामले में समीर किसी पर भरोसा तो नहीं करता. घर का तमाम सौदा सुलुफ़ भी स्वयं ही ले कर आता है. हर शनिवार को रसोई की तमाम चीज़ों की सूची  बनता है और टेस्को जा कर अकेले ही सामान ले आता है. फल और सब्ज़ियाँ अलग छोटी दुकानों से लाता है. उसे मीट और चिकन सुपर मार्केट वाले पसन्द नहीं आते – महक आती है उसे. कसाई की दुकान से ले कर आता है.
मीरा इतने वर्शों के साथ के बावजूद समीर की प्रकृति को समझ नहीं पाई है. दुनिया जहान के लोगों को पैसे बाँटता है, अपने रिश्तेदारों को पढ़ाई के लिए पैसे भेजता रहा, फिर भी ऐसा क्या है कि उनमें से भी कोई आज समीर के साथ पाँच मिनट बिताने को तैयार नहीं, “आप आजकल इतना अकेला महसूस करते हैं. अपने भतीजे प्रदीप को क्यों नहीं बुला लेते. वह बेचारा तो बी. ए. तक पास नहीं कर पाया. आपको साथ हो जाएगा और वह लंदन आकर शायद चुस्त बन जाए. ”
“मैंने पूछा था, मगर उसने कोई रुचि नहीं दिखाई. ”
“मगर वह तो खाली बैठा है कुछ कर भी नहीं रहा. . उसके बड़े भाई को तो आपने ही डिग्री के लिए पैसे दिये थे?  फिर इतने नख़रे किस बात के ?. ”
“मेरे नमक में ही कोई ख़राबी है. मैं किसी के लिये कुछ भी कर लूं, मेरी किस्मत में यश नहीं है. ”
“आप को सोचन तो होगा समीर कि आख़िर ऐसा क्यों है. वो एक कहावत है न कि बकरी ने दूध दिया मगर मेंगनी डाल कर. . कहीं आप भी अन्जाने में ऐसा ही तो नहीं कर जाते ?. ”
“आपका तो दिमाग़ ख़राब हो गया है. जब भी बात करेंगी उल्टी ही करेंगी !. ”
“समीर सोचन तो होगा न. आख़िर तमाम दुनिया तो ग़लत नहीं हो सकती न? कहीं न कहीं कुछ तो आपसे हो जाता होगा जो कि दूसरे का दिल दुखा जाता होगा. ”
“आपकी तो बात ही निराली होती है. जब कभी मेरे बारे में बात होती है, हमेशा सामने वाला ही ठीक होता है. आप को तो ऐश की ज़िन्दगी जीने की आदत पड़ चुकी है. आप यह भी भूल जाती हैं कि जिस एअरकण्डीशन गाड़ी में आप घूमती हैं वो भी आपके इस मज़दूर पति ने ही आपको ले कर दी है. ”
“मैंने कभी आपसे कार माँगी क्या ? और आपने आज तक यह कार मेरे नम तो की नहीं है. ”
“अरे ! इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि कार किसके नम पर है, ख़ास बात यह है कि कार इस्तेमाल कौन करता है. ”
“बात कोई बनी नहीं समीर, इस घर में हमारा बेटा महेश भी रहता है. क्या वह कभी कह सकता है कि यह घर उसका है ? यदि नम से कोई फ़र्क नहीं पड़ता तो आप यह घर मेरे नम कर दीजिये और आप इसमें ठीक वैसे ही रहते रहिये जैसे कि महेश रह रहा है. . कर सकेंगे आप ?. ”
“आप से बहस कौन करे ? आपको तो वकील होन चाहिये था. ”
“मैं भला वकील कैसे हो सकती थी ? जो मैं हो सकती थी, आपने वो भी तो नहीं होने दिया. शादी से पहले आपने वादा किया था कि घर में मुझे डार्क रूम बनवा कर देंगे. मुझे कहा था कि नीकॉन या कैनन का एस. एल. आर. कैमरा ले कर देंगे. मुझे फ़ोतोग्राफ़ी का कितना शौक़ था. . अगर आपने जेब में हाथ डाल दिया होता तो शायद मेरा भी कोई कैरियर बन गया होता. मुझे तो कॉलेज में ही फ़ोतोग्राफ़ी के लिये बहुत से अवार्ड मिलने शुरू हो गये थे. ”
“अरे आप पता नहीं किस कॉलेज गई थीं. कोई डिग्री विग्री तो आपने कभी दिखाई नहीं. ”
यही बातें वर्शों से होती आ रही हैं. आज भी यही होती हैं. समीर को मीरा के पढ़ा लिखा होने पर हमेशा शक़ होता है. या फिर यह भी कहा जा सकता है कि उसे मीरा के व्यक्तित्व के चीथड़े उड़ाने में मज़ा आता है. भला यह कैसे हो सकता है कि घर में कमाने वाला वह अकेला है और मीरा उसका मुक़ाबला करने की हिमाक़त करे ?. . उसने मीरा को क्या नहीं दिया ? क्या कभी कोई औरत लन्दन में यह अपेक्शा कर सकती है कि उसका पति उसे हैम्पस्टैड जैसे इलाक़े में घर ले कर दे ;  जहाज़ जैसी कार दे और उस पर से सफ़ाई के लिये नौकरानी और खान पकाने के लिये ख़ानसामा भी उपलब्ध करवाए ! समीर के अधिकतर पहचान वाले पैसे वाले ही हैं. समीर की एक ख़ास बात यह भी है कि उसका व्यवहार सामने वाले की आर्थिक स्थिति के अनुसार ही तय होता है.
मीरा के भैया सरकारी काम से लंदन आए थे. वे ख़ुद भी स्टेट बैंक के ऊँचे अधिकारी हैं. समीर से मिलने उसके दफ़्तर ही चले गये. बैंक क्शेत्र में ही समीर का बैंक भी था. समीर ने भोजन अपने केबिन में ही मंगवा लिया था. मीरा के भैया के सामने ही उसे नींद आने लगी थी. तभी समीर के सेक्रेटेरी का इंटरकॉम पर फ़ोन आया, “सर एक सलाउद्दीन साहब आपसे मिलन चाहते हैं. बिज़नस के बारे में कुछ बात करन चाहते हैं. ” समीर के दिमाग़ पर भोजन का नशा चढ़ रहा था. उसने बिज़नस का नम सुनकर सलाउद्दीन नमक व्यक्ति को बुलवा तो लिया, मगर उसका दिल बात करने का नहीं हो रहा था. बदतमीज़ी की इन्तहा यह कि उसने साइड टेबल पर दोनों पांव चढ़ा कर रख दिये. सलाउद्दीन ने देखा और उसके होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट उभर आई. मीरा के भैया हैरान थे कि समीर ऐसी बेहूदा हरक़त कैसे कर सकता है?
सलाउद्दीन ने बात करने का प्रयास भी किया था, “माथुर साहब कुछ पैसे इन्वेस्ट करन चाह रहा हूँ. हालांकि इस मुल्क़ में रहते इतने साल हो गये, मगर आज भी दिल यही कहता है कि अपने पैसे अपने मुल्क़ के किसी बैंक में रखे जाएँ. नून साहब ने आपका ज़िक्र किया तो सोचा कि आपसे मिल लिया जाए. ”
“सलाउद्दीन साहब आप आइन्दा आया करें तो पहले अपाइंटमेण्ट ले कर आया करें. इन्सान को लाख काम होते हैं. . वैसे आप कितना पैसा इन्वेस्ट करने की सोच रहे हैं?. ”
“मिस्टर माथुर मैं तो छोटा मोटा बिज़नेसमैन हूँ. बस यही कोई तीन मिलियन पाउण्ड्स कहीं इन्वेस्ट करन चाहता हूँ. ”
तीन मिलियन यानि कि तीस लाख पाउण्ड!. . समीर के पाँव झटके से साइड टेबल से नीचे आए; आँखों से नींद भागी और जल्दी से अपनी सेक्रेटरी को कमरे में बुलाया, “क्लेयर ज़रा जल्दी से कुछ चाय कॉफ़ी भिजवाओ. . सलाउद्दीन साहब क्या पिएँगे, चाय या कॉफ़ी?. . साथ में कुछ बिस्कुट वगैरह भी ले कर आन. ” समीर की आँखें अभी तक सलाउद्दीन के उत्तर की प्रतीक्शा कर रही थीं.
“जी मैं ब्लैक कॉफ़ी लेता हूँ. उसमें चीनी नहीं लेता. ”
“अरे, आप इतनी कड़वी चीज़ बिन चीनी के हज़म कैसे कर लेते हैं?. ”
“मैं तो इससे कहीं अधिक कड़वी चीज़ें सह लेता हूँ. ” सलाउद्दीन साहब की आँखें अचानक समीर के कदमों की तरफ़ मुड़ गईं. समीर को यह व्यंग्य नहीं समझ आया मगर मीरा के भैया की आँखें शर्म से नीची हो गईं.
मीरा आजतक इस घटन से उबर नहीं पाई है. जब कभी अपने पति के बारे में सोचती है तो उसके सिर पर चांदी का जूता मुकुट के तौर पर हमेशा दिखाई देता है. समीर के लिये इन्सान का कोई महत्व नहीं है – बस पैसा ही उसका भगवान है.
ऐसा भी नहीं है कि समीर कंजूस हो. समीर ने हमेशा पैसे को अपन ग़ुलाम समझा है. मगर यहाँ एक दुश्
चक्र सा बन जाता है. पता नहीं चलता कि कब पैसा सलीम का भगवान बन जाता है और कब ग़ुलाम.
विश्वनथ अचानक लन्दन चले आये हैं. कल रात उनका फ़ोन आया कि किसी काम के सिलसिले में आए हैं. वे पहले समीर की पहचान वाले थे. किन्तु अब समीर से अधिक उनके परिवार को मीरा के साथ स्नेह है. विश्वनथ जी की पत्नी सुपर्णा मीरा की ख़ास सहेली है. विश्वनथ समीर के दोस्त से कहीं अधिक मीरा की सहेली के पति के रूप में परिवार से जुड़ गए हैं. उन्होंने पहले यही पूछा, “भाभी आप घर में हैं न. देखिये आप अगर नहीं हैं तो मैं बस समीर से फ़ोन पर बात करके वापिस दिल्ली चला जाऊँगा. ”
मीरा मुस्कुरा दी. काश समीर को यह सीधी सी बात समझ में आ पाती कि दोस्ती और रिश्ते बनने के लिये पैसे से कहीं अधिक सौहार्द्यपूर्ण व्यवहार महत्वपूर्ण है. रिश्तों को चलने के लिये पैसों के पहियों की ज़रूरत नहीं होती.
सुपर्णा ने जब अपनी पहली रात की बातें मीरा के साथ बांटीं थीं तो मीरा के पूरे व्यक्तित्व को ही झिंझोड़ दिया था, “जानती हो मीरा, मेरे क़रीब आए और मेरी ठोड़ी ऊपर उठाते हुए बोले-सुपर्णा देखो मुझ में कुछ थोड़े बहुत ऐब भी हैं. मैं शाम को दो पैग व्हिस्की को ठण्डे पानी के साथ लेता हूँ. और मुझे ब्रिज खेलने का बहुत शौक़ है. अगर तुम एक आध पैग वोदका का लेन शुरू कर सको और मेरे साथ ब्रिज खेलने लगो, तो मेरा क्लब जान कम हो जाएगा. हो सकता है बन्द ही हो जाए. . मैं तो डर ही गई थी कि शराब कैसे पिऊंगी. मगर सच बताऊँ मीरा, विशी की बातें मान कर ज़िन्दगी में बहार आ गई. हम दोनों जब रात को थोड़े सुरूर में होते थे तो रात की रंगीनियों में फुलझड़ियाँ छूटने लगती थीं. और ब्रिज का चस्का तो ऐसा लगा कि मैं ख़ुद आगे बढ़ बढ़ कर विशी को ब्रिज पार्टियों में अपने साथ ले जाने लगी. . विशी बहुत ग्रेट आदमी है. उसे पैसे का ज़रा भी घमण्ड नहीं. ”
मीरा सोच में पड़ गई थी. पैसे का घमण्ड न होन कितनी बड़ी बात है. मीरा ख़ुद भी तो ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति के साथ कितने प्यार से बात कर लेती है. उसकी सोच, उसकी विचारधारा और भावनएँ सभी ग़रीबों के साथ जुड़ी हैं. दरअसल उसे तो अमीरों की पार्टियों में दम घुटता हुआ महसूस होता है. उसे याद आने लगती है अपनी सुहाग रात, “देखो मीरा मैंने बचपन में बहुत ग़रीबी देखी है. मैं आज जो भी बन पाया हूँ उसमें बहुत बड़ा हाथ मेरी माँ का है. क्या तुम चाहोगी कि हम अपनी माँ से अलग रहने को कहें. सबसे अच्छा तरीक़ा तो यही रहेगा कि माँ घर की रानी बन कर रहें जैसी कि वे आज तक हैं और तुम मेरे दिल की रानी बन कर रहो. . सच पूछो अगर तुम मेरी माँ को ख़ुश रखोगी तो मैं तुम्हारी हर छोटी बड़ी ख़ुशी का ध्यान रखूँगा. तुम्हें पैसे की कमी यहाँ कभी नहीं होगी. ”
समीर से दस वर्श छोटी मीरा उस समय समीर के छल को समझ नहीं पाई थी. मगर आज सब देख पा रही है कि उनकी शादी की शुरूआत ही सौदेबाज़ी से हुई थी. फिर भला उस रिश्ते में नशा और मुहब्बत कहाँ से आ पाते? आजतक सौदेबाज़ी ही चल रही है. समीर ने कुछ प्रापर्टी दिल्ली में ख़रीदी है. उसकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी तमन्ना थी कि सिविल लाइन्स में घर ख़रीदे ताकि मीरा को दिखा सके कि वह कितना अमीर हो गया है. मगर अब ज़मान बदल गया है दक्शिण दिल्ली असली दिल्ली बन गई है यानि कि नई दिल्ली. इसलिये साउथ एक्सटेंशन में बहुत बड़ा सा घर ख़रीद लिया. ख़ाली पड़ा रहता है. बस मीरा को दिखान है कि देखो मैं अमीर हूँ – लंदन में हैम्पस्टेड में घर लिया है; दिल्ली में साउथ एक्सटेंशन में और दो फ़्लैट दुबई में भी हैं. मीरा जानती है कि उन सभी घरों में उसका कोई मालिक़ान हक़ नहीं होगा. करेगा क्या यह आदमी इन सब घरों का? अपने बच्चे तक उसके अपने नहीं हैं.
समीर ने आजतक मीरा को नहीं बताया कि उसकी पगार कितनी थी या है या फिर बोनस कितना मिलता है. उसने कहाँ-कहाँ पैसे जमा करवा रखे हैं या फिर निवेश किये हैं – मीरा को कोई ख़बर नहीं. यहाँ तक कि मीरा को यह भी मालूम नहीं कि समीर ने उससे किन किन कागज़ात पर दस्तख़त करवा रखे हैं. जब कोई चीज़ ख़रीदी जाती है, मीरा के दस्तख़त करवा लिये जाते हैं. फिर एक  दिन उसका नम वहाँ से हटवा दिया जाता है. उसके लिये अब तक चार कारें ख़रीदी जा चुकी हैं, मगर उनमें से एक भी उसके नम में नहीं थी और न ही उसकी पसन्द से ख़रीदी गईं थी. समीर बस एहसान की मुद्रा में एक नई कार की चाबी उसे थमा देता है जो कि जर्मनी से मंगाई जाती है. फिर उस पर ब्रिटेन की नंबर प्लेट लग जाती है. कभी ऐसा नहीं हुआ कि दोनों पति-पत्नी की तरह इकट्ठे बैठ कर बातचीत करें; कार का मॉडल तय करें और शोरूम में जा कर ऑर्डर करें. और फिर साथ-साथ वहाँ से कार ड्राइव करते हुए वापिस घर की तरफ़ चलें.
समीर बस एक हाथ ले और दूसरे हाथ दे वाला रिश्ता पसन्द करता है. उसने किसी को कुछ ले कर दिया तो सामने वाला उसके सामने बिछ जाए और उसे देवता मान ले, तब तो है ठीक. अन्यथा उसके दिमाग़ में खलबली मच जाती है और सामने वाले के लिये कुछ ऐसे शब्द बाण निकलते हैं जो दिल, जिगर सीन सब चाक कर जाते हैं.
“अरे सुनती हैं, आज बैंक में सक्सेन जी ने अजब ही बात कही. ” समीर ने जूते उतारते हुए कहा. मीरा ने कोई जवाब नहीं दिया बस प्रश्
नवाचक दृश्टि से समीर की ओर देखती रही.
“वे बोले, अरे माथुर साहब आपने अपने जीवन में कितना कुछ अचीव किया है, आपके जीवन पर तो किताब लिखी जानी चाहिये. . मैंने कहा अजी छोड़िये सक्सेन जी भला मैंने ऐसा कौन सा तीर मार लिया?. ”
“जब कहते हैं तो लिखवा भी दें न. बिल्ली के गले में घण्टी बांध कर भी तो दिखाएँ. कहने को तो इन्सान कुछ भी कह देता है, मगर सही इन्सान तो वो है जो काम करके दिखाए. ”
“आप तो बस हर बात में अपनी चला देती हैं. अरे वो भला इन्सान जो कह रहा था उसको समझने की कोशिश तो करो. ”
मीरा साफ़ देख रही थी कि मायादास समीर की आँखों में उस किताब का कवर पृश्ठ लहरा रहा है. उसके चेहरे पर अभिमान के चिन्ह दिखाई देने लगे, “चलिये आप ही समझा दीजिये कि क्या कहा सक्सेन जी ने. ”
“अरे उसने तो कमाल ही कर दिया. . देखो. . उसने यह नोट बैंक के सभी अधिकारियों को भेजा है – लंदन, भारत, दुबई, अमरीका और सभी देशों के सीनियर अफ़सरों को. इसमें साफ़ लिखा है कि सब लोग एक एक लेख लिखें जिसमें मेरे व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला जाए. मेरे घर वाले तो मुझे कुछ समझते ही नहीं. ”
“आप यह न कहते तो आपकी बात पूरी हो ही नहीं सकती थी. . वैसे आपको पता है कि आप केवल एक बैंकर ही नहीं है. आप एक इन्सान भी हैं, पति, पिता, भाई और दोस्त. . शायद आपको यह सब ख़ुद को पता ही नहीं है. आपकी किताब भी एक पैसे वाले इन्सान के बारे में, पैसे वाले लोगों के लिखे हुए लेखों से बनेगी. आपके जीवन में भावनओं का कोई अर्थ नहीं. आपके सारे रिश्ते अर्थ से ही जुड़े हैं. ”
मीरा के पास एक ख़ज़ान है जिसमें पैसे, गहने, हीरे जवाहरात तो नहीं हैं बस तल्ख़ यादें हैं जो समीर ने दी हैं. समीर का अपने जीवन को पैसे से ऐसा जोड़ लेन कि बाक़ी किसी भी भावन के लिये वहाँ कोई स्थान ही न बचे – बस ऐसी यादों के ख़ज़ाने की मालिक है मीरा. जिन वाक्यों को कभी मीरा प्रेम की अभिव्यक्ति मान लेती थी आज लगता है जैसे उनके सही अर्थ उसे मालूम हो गये हैं. किन्तु उसे रत्ती भर भी उम्मीद नहीं कि कभी समीर को भी यह बात समझ आएगी.    
जब से डा. कूनर ने बताया है कि समीर के दिल की चारों आर्ट्रीज़ पूरी तरह से ब्लॉक्ड हैं समीर की परेशानी बढ़ती जा रही है. मीरा समझ रही है कि समीर इस बात से परेशान है कि जो पैसा उसने इतनी मेहनत से कमाया है; उसे इन्वेस्ट करके दुगन चौगुन किया है; उसके मरने के बाद उस पैसे पर मीरा ऐश करेगी. और हो सकता है कि उसका कोई प्रेमी हो. मीरा और उसका प्रेमी उसका पैसा उड़ाएँ, भला समीर कैसे यह बात मान सकता है? वह इस पैसे को अपने जीवन में ही कुछ इस तरह इस्तेमाल कर लेन चाहता है कि मीरा को उसके हक़ से अधिक कुछ न मिले, “मीरा जी यह जो बैंक वाले हम पर किताब निकाल रहे हैं, उसका लॉंच हिल्टन होटल में रख रहे हैं. मैं सोचता हूँ कि इस ख़ुशी के मौक़े पर अपने तीन बच्चों और आपको एक भेंट दूं. ”
“अरे, यह तो हम सबके लिये ख़ुशी का मौक़ा है. आपकी तारीफ़ें होंगी, लोग तालियाँ बजाएँगे. भेंट तो हमें देनी चाहिये उस दिन. मैं आपको उस दिन के लिये एक नया सूट ख़रीद कर दूँगी, याद है पिछली बार आपको अरमानी का ग्रे रंग का सूट बहुत पसन्द आया था. सोचती हूँ वही ले दूँगी. ”
“आप भी न कभी ग़रीबों की सोच से आगे नहीं बढ़ सकती हैं. अरे मैं ऐसी किसी भेंट के बारे में नहीं सोच रहा. मैं सोचता हूँ कि किसी टैक्स-फ़्री देश में आप चारों के नम ढाई ढाई लाख पाउण्ड जमा करवा दूँ. अब तो ज़िन्दगी का कोई भरोसा भी नहीं. अपने हाथों से आप चारों को पैसे दे दूँ. ”
“देखिये समीर आप बच्चों को चाहे जो कुछ दीजिये, मुझे कोई ऐतराज़ नहीं. मगर जब आप मेरे सिर पर हैं, मुझे भला पैसों का क्या करन है? मुझे तो बस आपसे प्यार के दो बोल मिल जाएँ मैं उसी में ख़ुश हो जाती हूँ. . मगर जो चीज़ आपके पास है ही नहीं वो आप मुझे कैसे दे सकते हैं? थोड़ी कोशिश करिये. कि इस किताब की थोड़ी ख़ुशी मेरे नम कर दीजिये. ”
समीर का नीचे का होंठ और नीचे को खिसक गया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्वार्टर मिलियन पाउण्ड की रक़म का ज़िक्र सुनने के बाद भी मीरा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई. ‘साली! नटक करती है!. . भला इतने पैसे मिलने की ख़बर सुन कर भला कोई ख़ुश हुए बिन रह सकता है?
अतुल ने तो पैसे लेने से साफ़ इन्कार कर दिया, “देखिये माँ, सारी उम्र इस आदमी ने मुझे जानवर की तरह मारा पीटा, गालियाँ दीं, बद-दुआएँ दीं और मुझे हमेशा ईविल और शैतान की औलाद कहा. अगर यह सोचता है कि मुझे पैसे देकर मेरा प्यार ख़रीद लेगा, तो इसे कह दीजिये कि बाज़ार में बहुत लोग बैठे हैं जो पैसे ले कर प्यार बेचते हैं. सोहो में औरतें भी मिलती हैं और मर्द भी. जाए और उनको दे अपने पैसे. . मैं इतना कमा लेता हूँ कि अपनी ज़रूरतें पूरी कर सकूं. . इस आदमी की यही सज़ा है कि यह पैसे लेकर लेने वाला ढूँढ़ता रहे और इसे कोई लेने वाला न मिले. यह पैसा अपनी छाती पर लेकर ही इस दुनिया को छोड़े. ”
इतनी नफ़रत! भला एक बेटे को अपने बाप से इतनी नफ़रत हो सकती है! वह अपने पिता को ‘यह आदमी’ कह कर पुकारता है. उसकी दौलत की विरासत को लात मार देता है. क्या यह जानता है कि पिता की मौत के बाद तो पैसा इसको मिल ही जाएगा. अपनी माँ  से तो प्यार करता ही है. शायद माँ सारी दौलत उसे ही देगी. नहीं. . इतना हिसाबी किताबी तो नहीं ही हो सकता. कहता है कि वह किताब के लोकार्पण समारोह में भी शामिल होगा. ‘यह किताब झूठ का पुलिंदा होगी. हो तो यह भी सकता है कि यह आदमी पैसे देकर अपनी शान में लेख लिखवा ले और किताब छप जाए. वर्ना आप ही बताइये भला इस इन्सान के लिये किसके दिल में कुछ भी अच्छा होगा ?
सुधा बड़ी है और हमेशा से ही समीर की लाड़ली रही है. उसने पिता की छाती से लग कर चुपके से अपन अकाउण्ट खुलवा लिया है. छोटी प्रभा तो न तीन में न तेरह में. वह न तो माँगती है और न ही मन करती है. उसके दिल में एक ही ख़्याल आता है कि ज़िन्दगी जीने के लिये है ; किसी से शिकायत न करो, बस इसे जिए जाओ. है भी एकदम बिंदास.
आजकल बैंक के पब्लिसिटी डिपार्टमेण्ट का जॉन कोइलो बहुत घर आने लगा है. कभी प्रूफ़-रीडिंग के लिये तो कभी कोई फ़ोतो या लेख लेने. उसे स्टेशन से कार पर समीर ख़ुद लेकर आते हैं. अतुल को सब मालूम है, “देख लेन माँ, जब तक यह किताब बन रही है, तब तक जॉन के लिये तुम्हारे पति की जान भी हाज़िर रहेगी. जिस दिन किताब छप कर आ गई, जॉन के पिछले हिस्से पर एक लात पड़ेगी और उसे समझ भी नहीं आएगा कि लात किसकी थी. ”
“तमीज़ से बात करो अतुल, अपने पिता के बारे में बात कर रहे हो. ”
“रहने दो माँ, यह तुम भी जानती हो कि मैं अपने आप को बे-बाप का मानता हूँ. मेरे लिये परिवार का एक ही अर्थ है तुम और मेरी दो बहनें. यह आदमी तुम्हारा पति हो सकता है मगर इसका मुझ से कोई रिश्ता नहीं. . चलो एक बार मान लिया कि इसका मुझ से रिश्ता है, तो भी मेरा इससे कोई रिश्ता नहीं है. ”
क्या पाया है समीर ने अपने जीवन से ? कल ही भारतीय उच्चायोग से कुमार साहब का फ़ोन था, “अरे भाभी, यह समीर को क्या हो गया है ?. . कल हाई कमिश्
नर से मिलने की कोशिश कर रहा था. आख़िरकार डिप्टी हाई कमिश्नर से उनकी मुलाक़ात हो भी गई. उनको डोनेशन ऑफ़र कर रहा था. बीस लाख रुपये देने की पेशकश कर रहा था. मुखर्जी साहब ने बहुत सादग़ी से पैसे लेने से मन कर दिया. और सलाह दे दी कि भारत में बहुत सी योजनएँ चल रही हैं. यदि समीर को डोनेशन देन ही है तो वहाँ सीधे देन होगा. . बहुत निराश लग रहा था. . आप संभालिये उसे, पता नहीं क्या हो रहा है उसे. ”
तभी तो कल रात गंभीर मुद्रा बनए किसी से बात भी नहीं कर रहे थे समीर. उसकी बेचारगी पर मीरा को दया भी  आ रही थी और कोफ़्त भी हो रही थी. कितना डरा हुआ है यह इन्सान! मौत से कैसे डर रहा है! पत्नी को तो पता भी नहीं कि दौलत कितनी है और कहाँ है. हैरान होती रहती है – क्यों मुझे इतनी पराई समझता है समीर? कितना बेचैन है कि मरने से पहले अपन पैसा अपने हाथों से बाँट दे, लुटा दे. आजकल अपने छोटे दामाद से बहुत निकटता दिखा रहा है.
रविराज पिछले महीने आये थे. जन्माश्
टमी समीर के साथ ही मनई थी. समीर, मीरा और रवि तीनों वॉटफ़र्ड हरे रामा हरे कृश्णा मंदिर गये थे. कार छोटे दामाद ने ही चलाई थी. रविराज ने मीरा से कहा भी, “भाभी यह जो समीर कर रहा है, आपके परिवार के लिये अच्छा नहीं है. देखिये दामाद दामाद होता है और बेटा बेटा. ”
“भाई साब, बाप-बेटे के बीच मुझे नहीं लगता कि मुझे कुछ कहन चाहिये. ” मीरा ने अपनी स्थिति साफ़ करते हुए कहा.
“भाभी जी, मैंने आपके बेटे से बात की है. उसके व्यवहार से मैं बहुत प्रभावित हूँ. . मोटे तौर पर कहा जाए तो आपका पुत्र यहाँ  इंगलैण्ड का पला बढ़ा है. उसकी बातचीत में साफ़गोई है. उसके चेहरे पर कोई छल कपट नहीं दिखाई देता. जो उसके दिल में है वही उसकी बातों और आँखों में महसूस किया जा सकता है. . मगर आपका दामाद अलग किस्म का है. उसकी परवरिश इंदौर वाली है. वह तो दिल्ली से भी नहीं है कि कुछ महानगरीय छाप महसूस की जा सके. . उसे मालूम है कि किस समय क्या बात करनी चाहिये. . ही इज़ पॉलिटिक्ली टू करेक्ट ! एक तरफ़ आपका बेटा है जिसके बारे में मैं ताल ठोक कर कह सकता हूँ कि उसे पैसे का ज़रा भी लालच नहीं है. और दूसरी तरफ़ आपका दामाद है जिसके बारे में टिप्पणी कर पान मेरे लिये बहुत आसान नहीं है. जिस तरह वह समीर के कड़वे शब्दों को भी पचा जाता है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि उसकी निगाहें कहीं और लगी हैं. . मुझे तो उसका व्यवहार आपकी बेटी से भी कुछ ख़ास तसल्लीबख़्श नहीं लगा. ”
मीरा की प्रतिक्रिया से रविराज को महसूस हो गया कि वह अपने दामाद के बारे में अधिक बात करने में रुचि नहीं रखती. रिश्तों की धूल वह सरे बाज़ार कभी नहीं झाड़ती. उस धूल से उसे अपनी ही साँस रुकती महसूस होती है. वह तो कभी समीर की बुराई अपने ही भाई-बहनों से नहीं कर पाती. किन्तु रविराज की बातें उसके दिल की धड़कन को बढ़ाती रहीं – बेटा, बेटा होता है और दामाद दामाद ही रहता है.
किताब में भी दामाद ने अपने ससुर की तारीफ़ में कसीदे काढ़े हैं. न तो उसमें मीरा का लेख  है और न ही पुत्र राहुल का. बड़ी बेटी और दामाद दोनों का लेख है और छोटे दामाद का लेख है, “न भाई यह छोटी के बस का नहीं है. हर इन्सान लिख नहीं सकता. छोटी ने तो बस किसी तरह ‘ए’ लेवेल्स पास कर लिये, वही ग़नीमत जानिये. . शायद दिल में कहीं डर भी था कि बेटी ने अपने दिल की बात लिख दी तो समीर साहब कहाँ मुँह छिपाते फिरेंगे. ”
मीरा की बातें समीर के दिल में बैठती जाती हैं. वह हार नहीं मानन चाहता. अपने मेहनत से कमाए और अक्ल से बढ़ाए पैसे की हार माने भी तो कैसे. उसे मीरा की बातें एक भरे पेट की खट्टी डकार से अधिक कुछ नहीं लगतीं. ‘मेम साहब को मेरी कमाई के बिन एक हफ़्ता बितान पड़ जाए तो पैसे की सच्चाई समझ में आ जाए. रोमाँटिक हो कर बेक़ार की बातें करन बहुत आसान है. यह जो ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की सहायता का नटक करती है, क्या मेरे पैसे के बिन कर सकती है ?’
फिर अचानक परेशान होने लगता है. बेटे को लंदन में हैरो स्कूल में पढ़ाई करवाई. शायद उसे भी नेहरू और चर्चिल बनन चाहता था. जितनी एक आम आदमी की पगार नहीं होती उतनी तो अतुल की सालान फ़ीस थी. बेहतरीन कपड़े, जूते, जेब ख़र्च – क्या नहीं किया इसके लिये. अब आख़िर बाप हूँ मुझे इतना हक़ तो होन चाहिये कि बच्चे को सही ग़लत की तमीज़ सिखा सकूँ. क्यों यह लड़का अपने आपको मुझसे अलग समझता है ? भला मैं अपन सारा धन किसके नम करके जाऊँगा ?
बेटियाँ तो पराई होती हैं. दामाद भला मेरा नम थोड़े ही आगे बढ़ाएँगे. लगता है कि मैं तो बस यूँ ही चला जाऊँगा. अपने दिल के ज़ख़्म किसको दिखाऊँ. काश! मीरा मेरी कोई बात तो समझ पाती. अगर वह कोशिश करती तो अतुल और मेरे बीच एक पुल का काम कर सकती थी. किन्तु उसके साथ तो रिश्तों का महीन तंतु कभी जुड़ा ही नहीं. मुझे हमेशा याद दिलाती रहती है कि मेरा ख़ानदान बहुत निचले स्तर का है. क्या इसके ख़ानदान ने इसको यही सिखाया है कि अपने पति को हर मौक़े पर ज़लील करो ? अपने ऊल-जलूल शौक़ पूरे करने के लिये जो पैसे लगाती है, कैसे भूल जाती है कि मैं ही कमाता हूँ ?
आज फिर तनाव बढ़ रहा है. आर्ट्रीज़ ब्लॉक होती जा रही हैं. कितने दिन का जीवन बाक़ी है, कुछ ख़बर नहीं है. पैसा जी का जंजाल बनता जा रहा है.   डा. चटर्जी ने सिगरेट पीने पर भी रोक लगा रखी है. किसके लिये जीन है मुझे ? मीरा, बेटा, बेटियाँ सभी तो पराए हैं. कोट की जेब में हाथ डालता है. सिगरेट का पैकेट वहाँ भी नहीं है. दराज़ भी खाली है. बेटा अपनी प्रेमिका के साथ फ़ोन पर बातें कर होगा. मीरा को कहने का अर्थ है कि उसका भाशण सुनो. स्वयं उसके शरीर बुरी तरह से थका हुआ है. समीर फ़ोन उठाता है और अपने छोटे दामाद का नम्बर मिलाने लगता है.

© 2012 Tejendra Sharma; Licensee Argalaa Magazine.

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